बृहस्पतिवार व्रत कथा (संपूर्ण कहानी)

बृहस्पतिवार या गुरुवार के दिन भगवान बृहस्पति की पूजा के अनेक महत्व बताए गए हैं. इस दिन जो व्यक्ति भगवान बृहस्पति की व्रत कथा पढ़ता है या सुनता है उसे सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं.

बृहस्पति व्रत कथा पढ़ने से धन और यश बढ़ता है. विद्या और पुत्र की प्राप्ति होती है. सभी रुके हुए कार्य सफल होते हैं इसलिए हमें बृहस्पति व्रत कथा जरूर पढ़ना चाहिए.

बृहस्पतिवार व्रत कथा | Brihaspativar Vrat Katha

प्राचीन समय की बात है। भारत में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा प्रतापी तथा दानी था। वह नित्यप्रति मन्दिर में भगवद दर्शन करने जाता था। वह ब्राह्मण और गुरु की सेवा किया करता था।

उसके द्वार कोई भी याचक निराश होकर नहीं लौटता था। वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पूजन करता था। गरीबों की सहायता करता था। परन्तु यह सब बातें उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी, वह न व्रत करती और न किसी को एक भी पैसा दान में देती थी। वह राजा से भी ऐसा करने को मना किया करती थी।

एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले गए। घर पर रानी और दासी थीं। उस समय गुरु बृहस्पति साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा माँगने आए। साधु ने रानी से भिक्षा माँगी तो वह कहने लगी- “हे साधु महाराज! मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूँ। इस कार्य के लिए तो मेरे पतिदेव ही बहुत है।

अब आप ऐसी कृपा करें कि सारा धन नष्ट हो जाए तथा मैं आराम से रह सकूँ।” साधु रूपी बृहस्पतिदेव ने कहा- “हे देवी! तुम बड़ी विचित्र हो। सन्तान और धन से कोई दुःखी नहीं होता है, इसको सभी चाहते हैं। पापी भी पुत्र और धन की इच्छा करता है।

अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राह्मणों को दान दो, धर्मशालाएँ बनवाओ, कुआँ तालाब, बावड़ी-बाग-बगीचे आदि का निर्माण कराओ तथा निर्धनों की कुँआरी कन्याओं का विवाह कराओ, साथ ही यज्ञादि करो।

इस प्रकार के कर्मों से आपके कुल का और आपका नाम परलोक में भी सार्थक होगा एवं तुम्हें भी स्वर्ग की प्राप्ति होगी।” परन्तु रानी साधु की इन बातों से खुश नहीं हुई। उसने कहा- “हे साधु महाराज! मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं जिसको मैं अन्य लोगों को दान देती फिरूं तथा जिसको रखने और सम्हालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाए।”

साधु ने कहा- “हे देवी! यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूँ तुम वैसा ही करना। बृहस्पतिवार के दिन घर आंगन को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से कहना वह हजामत करवाए, भोजन में मांस-मदिरा खाना, कपड़े धोबी के यहाँ धुलने देना।

इस प्रकार सात बृहस्पतिवार करने से तुम्हारा सारा धन नष्ट हो जाएगा।” यह कहकर साधु महाराज रूपी बृहस्पतिदेव अन्तर्धान हो गए। रानी ने साधु के कहने के अनुसार सात बृहस्पतिवार तक वैसा ही करने का विचार किया।

साधु के बताए अनुसार कार्य करते हुए केवल तीन बृहस्पतिवर ही बीते थे ‘कि उसकी समस्त धन-सम्पत्ति नष्ट हो गई। भोजन के लिए दोनों समय परिवार तरसने लगा तथा सांसारिक भोगों से दुःखी रहने लगा। तब राजा रानी से कहने लगा कि हे रानी! तुम यहाँ पर रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ।

क्योंकि यहां पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं, इसलिए मैं यहाँ पर कोई काम नहीं कर सकता। मैं अब परदेश जा रहा हूँ। वहाँ कोई काम-धन्धा करूँगा। शायद हमारे भाग्य बदल जाएँ। ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया। वह वहाँ जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता। इस तरह जीवन व्यतीत करने लगा।

इधर राजा के बिना रानी और दासियाँ दुःखी रहने लगीं, किसी दिन भोजन मिलता और किसी दिन जल पीकर ही रह जातीं। एक समय रानी और दासियों को सात दिन बिना भोजन के व्यतीत करने पड़े, तो रानी ने अपनी दासी से कहा- “हे दासी! यहाँ पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है।

वह बड़ी धनवान है। तू उसके पास जा और वहाँ से पाँच सेर बेझर माँगकर ले आ, जिससे कुछ समय के लिए गुजारा हो जाएगा।” दासी रानी की बहन के पास गई। रानी की बहन उस समय पूजा कर रही थी। बृहस्पतिवार का दिन था।

दासी ने रानी की बहन से कहा- “हे रानी! मुझे आपकी बहन ने भेजा है। मुझे पाँच सेर बेझर दे दो। ” दासी ने यह बात अनेक बार कही, परन्तु रानी की बहन ने कोई उत्तर नही दिया, क्योंकि वह उस समय बृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी।

जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुःखी हुई। उसे क्रोध भी आया। वह लौटकर रानी से बोली- “हे रानी! आपकी बहन बहुत ही घमण्डी है। वह छोटे लोगों से बात भी नहीं करती।

मैंने उससे कहा तो उसने कोई उत्तर नहीं दिया। मैं वापस चली आई।” रानी बोली- “हे दासी! इसमे उसका कोई दोष नहीं है। जब बुरे दिन आते हैं तब कोई सहारा नहीं देता। अच्छे-बुरे का पता विपत्ति में ही लगता है। जो ईश्वर की इच्छा होगी वही होगा। यह सब हमारे भाग्य का दोष है।”

उधर रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नही बोली, इससे वह बहुत दुःखी हुई होगी। अतः कथा सुन और विष्णु भगवान् का पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी- “हे बहन! मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रहीं थी। तुम्हारी दासी हमारे घर गई थी, परन्तु जब तक कथा होती है तब तक हम लोग न उठते हैं और न बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली। कहो, दासी क्यों गई थी?”

रानी बोली- “बहन! हमारे घर अनाज नहीं था। वैसे तुमसे कोई बात छिपी नहीं है। इस कारण मैंने दासी को तुम्हारे पास पाँच सेर बेझर लेने के लिए भेजा था। ” रानी की बहन बोली- “बहन देखो! बृहस्पति भगवान् सबकी मनोकामना पूर्ण करते हैं। देखो, शायद तुम्हारे घर में ही अनाज रखा हो।”

यह सुनकर दासी घर के अन्दर गई तो वहां उसे एक घड़ा बेझर का भरा मिल गया। उसे बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि उसने एक-एक बर्तन देख लिया था। उसने बाहर आकर रानी को बताया। दासी अपनी रानी से कहने लगी- “हे रानी! देखो, वैसे हमको जब अन्न नहीं मिलता तो हम रोज ही व्रत करते हैं। अगर इनसे इस व्रत की विधि और कथा पूछ ली जाए तो उसे हम भी कर लिया करेंगे।”

दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा। उसकी बहन ने बताया- “हे” रानी बहन! बृहस्पतिवार को सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करके बृहस्पतिवार का व्रत करना चाहिए। लेकिन उस दिन सिर नहीं धोना चाहिए।

बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्कों से विष्णु भगवान् का केले के वृक्ष की जड़ से पूजन करें तथा दीपक जलावें। उस दिन एक ही समय भोजन करें। भोजन पीले खाद्य पदार्थ का करें तथा कथा सुनें। इस प्रकार करने से गुरु भगवान् प्रसन्न होते हैं। अन्न, पुत्र, धन देते हैं। इस तरह व्रत और पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट गई।

रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि वे बृहस्पतिदेव भगवान् का पूजन जरूर करेंगी। सात दिन बाद जब बृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा। घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बिन लाईं तथा उसकी दाल से केले की जड़ में विष्णु भगवान् का पूजन किया। अब भोजन कहाँ से आए।

दोनों बड़ी दुःखी हुईं परन्तु उन्होंने व्रत किया था इस कारण बृहस्पतिदेव भगवान् प्रसन्न थे। वे एक साधारण व्यक्ति के रूप में दो थालों में सुन्दर पीला भोजन लेकर आए और दासी को देकर बोले-“हे दासी! यह भोजन तुम्हारे रानी के लिए है, तुम दोनों करना।”

दासी भोजन पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और रानी से बोली- “रानी जी, भोजन कर लो।” रानी को भोजन आने के बारे में कुछ पता नहीं था इसलिए वह दासी से बोली- “जा, तू ही भोजन कर क्योंकि तू हमारी व्यर्थ में हँसी उड़ाती है।” दासी बोली- “एक व्यक्ति अभी भोजन दे गया है।”

रानी कहने लगी- “वह भोजन तेरे ही लिए दे गया है, तू ही भोजन कर।” दासी ने कहा- “वह व्यक्ति हम दोनों के लिए दो थालों में भोजन दे गया है। इसलिए मैं और आप दोनों ही साथ-साथ भोजन करेंगी।” फिर दोनों ने गुरु भगवान् को नमस्कार कर भोजन प्रारम्भ किया।

उसके बाद से वे प्रत्येक बृहस्पतिवार को गुरु भगवान् का व्रत और पूजन करने लगीं। बृहस्पति भगवान् की कृपा से उनके पास धन हो गया। परन्तु रानी फिर पहले की तरह से आलस्य करने लगी।

तब दासी बोली- “देखो रानी! तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थीं, तुम्हें धन के रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया। अब गुरु भगवान् की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हें आलस्य होता है?

बड़ी मुसीबतो के बाद हमने यह धन पाया है। इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए। तुम भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राह्मणों को दान दो, कुआँ-तालाब-बावड़ी आदि का निर्माण करवाओ, मन्दिर-पाठशाला बनवाकर दान दो, कुँवारी कन्याओं का विवाह करवाओ, धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पितृ प्रसन्न हों।”

दासी की बात मानकर रानी ने इसी प्रकार के कर्म करने प्रारम्भ किए, जिससे उनका काफी यश फैलने लगा।

एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगीं कि न जाने राजा किस दशा में होंगे, उनकी कोई खोज-खबर नहीं है। गुरु भगवान् से उन्होंने प्रार्थना की और भगवान् ने रात्रि में राजा को स्वप्न में कहा- “हे राजा उठ! तेरी रानी तुझको याद करती है। अब अपने देश को लौट जा।”

राजा प्रातःकाल उठकर, जंगल से लकड़ियाँ काटकर लाने के लिए जंगल की ओर चल पड़ा। जंगल से गुजरते हुए वह सोचने लगा- “रानी की गलती से कितने दुःख भोगने पड़े। राजपाट छोड़कर उसे जगल में आकर रहना पड़ा। जंगल से लकड़ियाँ काटकर उन्हें बेचकर गुजारा करना पड़ा।”

उसी समय उस जंगल में बृहसपतिदेव एक साधु का रूप धारण कर आए और राजा के पास आकर बोले- “हे लकड़हारे! तुम इस सुनसान जंगल में किस चिन्ता में बैठे हो, मुझे बतलाओ?”

यह सुन राजा के नेत्रों में जल भर आया और साधु की वन्दना कर बोला- “हे प्रभो! आप सब कुछ जानने वाले हैं।” इतना कहकर राजा ने साधु को अपनी सम्पूर्ण कहानी सुना दी।

महात्मा तो स्वाभाव से ही दयालु होते हैं। वे राजा से बोले- “हे राजा! तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पतिदेव के प्रति अपराध किया था जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई। अब तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। भगवान् तुम्हें पहले से अधिक धन देंगे।

देखो, तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पतिवार का व्रत करना प्रारम्भ कर दिया है। अब तुम भी बृहस्पतिवार का व्रत करके चने की दाल व गुड़ और जल को लोटे में डालकर केले के पत्ते से भगवान् विष्णु का पूजन करो। फिर कथा कहो या सुनो। भगवान् तुम्हारी सब कामनाओं को पूर्ण करेंगे।”

साधु को प्रसन्न देखकर राजा बोला- “हे प्रभो! मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा भी नहीं बचता जिससे भोजन करने के उपरान्त कुछ बचा सकूँ। मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है मेरे पास कोई साधन नहीं जिससे समाचार जान सूकूँ। फिर मैं बृहस्पतिवार की कौन सी कहानी कहूँ या सुनूं। मुझको तो कुछ भी मालूम नहीं है।”

साधु ने कहा- “हे राजा! तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। बृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियाँ लेकर शहर में जाओ। तुम्हें रोज से दोगुना धंन प्राप्त होगा, जिससे तुम भली-भाँति भोजन कर लोगे तथा बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जाएगा।” बृहस्पतिदेव की कथा इस प्रकार है-

बृहस्पतिदेव की कथा

बृहस्पतिवार व्रत कथा
बृहस्पतिवार व्रत कथा

प्राचीन काल में एक बहुत ही निर्धन ब्राह्मण था। उसके कोई सन्तान नहीं थी। वह नित्य पूजा-पाठ करता, परन्तु उसकी स्त्री बहुत मलीनता के साथ रहती थी। वह न स्नान करती और न किसी देवता का पूजन करती। प्रातःकाल उठते ही सर्वप्रथम भोजन करती, बाद में कोई अन्य कार्य करती।

ब्राह्मण देवता बहुत दुःखी रहते थे। पत्नी को बहुत समझाते, किन्तु उसका कोई परिणाम न निकलता। भगवान् की अनुकम्पा से एक समय उस ब्राह्मण की पत्नी गर्भवती हुई और दसवें महीने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया। निर्धन ब्राह्मण कन्या के जन्म से बहुत दुखी हुआ।

धीरे-धीरे ब्राह्मण की कन्या बड़ी होने लगी। बचपन से ही उस कन्या की रुचि भगवान् विष्णु की पूजा में थी। वह प्रातः उठते ही स्नानादि करके भगवान् विष्णु की पूजा करने मंदिर में जाती थी। बृहस्पतिवार को व्रत करके विधिवत् पूजा-पाठ करती थी।

पूजा-पाठ के बाद वह पढ़ने के लिए पाठशाला में जाती थी। घर से चलते हुए वह मुट्ठी भर जौ साथ लेकर जाती और पाठशाला के रास्ते में थोड़े-थोड़े जौ गिराती जाती थी। जब वह पाठशाला से घर लौटती तो जौ के वह दाने सोने में बदले हुए मिलते थे। लड़की सभी सोने के दाने बीन लाती थी।

एक दिन जब वह सोने के दानों को साफ कर रहीं थी तो उसकी माँ ने कहा, “बेटी ! सोने के दाने साफ करने के लिए सोने का सूप भी होना चाहिए।” अगले दिन बृहस्पतिवार था। उसने भगवान् बृहस्पतिदेव की पूजा करते हुए प्रार्थना की, “हे भगवान! यदि मैंने आपका व्रत विधिवत् किया हो तो मुझे सोने का सूप दे दो।”

भगवान् बृहस्पतिदेव ने उसकी मनोकामना पूरी करने का वचन दिया। पाठशाला से लौटते समय उसे रास्ते में सोने का सूप पड़ा हुआ मिला। घर लौटकर सोने का सूप अपनी माँ को दिखाकर वह सोने के दाने साफ करने लगी।

उसी समय नगर का राजकुमार उसके घर के पास से गुजरा। उस सुन्दर लड़की को सोने के सूप में जौ साफ करते देख राजकुमार उस पर मोहित हो गया। महल में लौटकर राजकुमार ने राजा से उस लड़की से विवाह करने की इच्छा प्रकट की तो राजा ने ब्राह्मण को महल में बुलाकर राजकुमार से उसकी लड़की के विवाह की बात कही। ब्राह्मण तैयार हो गया।

धूमधाम से उस लड़की का विवाह राजकुमार से हो गया। दुल्हन बनकर ब्राह्मण की लड़की महल में चली गई। लड़की के चले जाने से ब्राह्मण फिर निर्धन हो गया। उसे कई-कई दिन भोजन भी नही मिलता था। बहुत दुखी होकर ब्राह्मण एक दिन अपनी लड़की के पास गया।

अपने पिता से निर्धनता का समाचार सुनकर उसे बहुत सा धन देकर पिता को विदा किया। उस धन से ब्राह्मण ‘कुछ दिन तो आराम से गुजर गए। लेकिन जल्दी ही फिर भूखों मरने की हालत हो गई।

ब्राह्मण अपनी लड़की से धन लेने के लिए फिर महल में पहुँचा। लड़की ने पिता की बुरी हालत देखकर कहा, “पिताजी! आखिर आप कब तक मुझसे धन लेकर जीवन-यापन करेंगे। आप कोई ऐसा उपाय क्यों नहीं करते जिससे आपका घर धन-सम्पत्ति से भर जाए । “

ब्राह्मण ने कहा, “मैंने तेरी मां को बहुत समझा लिया, पर उसकी समझ में कुछ नहीं आता। उसका फूहड़पन नष्ट हो तो घर की निर्धनता भी दूर हो जाए।” तब कुछ सोचकर लड़की ने पिता से कहा, “पिताजी! आप कुछ दिनों के लिए माँ को मेरे पास छोड़ जाओ।”

तब कुछ सोचकर ब्राह्मण पत्नी को लड़की के पास महल में छोड़ आया। लड़की ने अपनी माँ से कहा, “माँ, तुम कल प्रातः उठकर स्नानादि करके भगवान् बृहस्पतिदेव (विष्णुजी) की पूजा अवश्य करना। पूजा करने से तुम्हारी निर्धनता अवश्य दूर हो जाएगी।” लेकिन उसकी माँ ने उसकी कोई बात नहीं मानी।

तब क्रोधित होकर लड़की ने अपनी माँ को एक कक्ष में बंद कर दिया। सूर्योदय के समय माँ को उठाकर, जबरदस्ती उसे स्नान कराया और फिर मंदिर में ले जाकर भगवान् बृहस्पतिदेव की पूजा कराई। कुछ दिनों तक ऐसा करने से माँ की बुद्धि में परिर्वतन हुआ और वह स्वयं बृहस्पतिवार का व्रत रखने लगी।

उसके व्रत रखने से ब्राह्मण के घर में भगवान् विष्णु की अनुकम्पा से धन की वर्षा होने लगी। दोनों पति-पत्नी धन-सम्पत्ति पाकर आनंदपूर्वक जीवन-यापन करते हुए विष्णुधाम को चले गए।

लकड़हारा बने राजा ने उन साधु से भगवान् बृहस्पतिदेव की यह कथा सुनकर बृहस्पतिवार का व्रत करके भगवान् विष्णु की पूजा की। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हो गए। लेकिन अगले बृहस्पतिवार को कामकाज में अधिक व्यस्त रहने के कारण उसने भगवान् बृहस्पतिदेवजी का व्रत नहीं किया।

भगवान बृहस्पतिदेव लकड़हारे से क्रोधित हो गए और उसे भूल की सजा दी। उस दिन नगर के राजा ने नगर में घोषणा करके सबको सूचित किया, “प्रत्येक नागरिक मेरे महल में भोजन करने आए। जो नहीं आएगा, उसे अपराधी मानकर भारी दण्ड दिया जाएगा।”

लकड़हारा बने राजा ने उस नगर के राजा की घोषणा तो सुनी, लेकिन जंगल से लकड़ी काटकर लाने और उन्हें बेचने में देर हो जाने के कारण वह समय पर महल में भोजन करने नहीं जा सका; अतः राजा के सैनिक लकड़हारे को पकड़कर महल मे ले गए।

राजा ने उसे महल के एक कक्ष में बैठाकर भोजन कराया। उस कक्ष में एक खूँटी पर रानी का सोने का हार लटका हुआ था। लकड़हारा अकेला उस कक्ष में भोजन कर रहा था। तभी उसने एक आश्चर्यजनक घटना घटती देखी। देखते ही देखते वह खूँटी हार को निगल गई।

थोड़ी देर के बाद राजा ने हार को गायब देखा तो लकड़हारे को कारावास में डलवा दिया। लकड़हारा मन-ही-मन अपने भाग्य को कोसने लगा। तभी उसे जंगल में मिले साधु का स्मरण हो आया।

थोड़ी देर में भगवान् बृहस्पतिदेव सन्यासी के रूप में उसके सामने प्रकट हुए और कहा, “हे लकड़हारे! तूने भगवान् बृहस्वतिदेव की पूजा नहीं की, इसी कारण तुम्हें कष्ट हुआ है।

लेकिन अब चिन्ता मत करो। बृहस्पतिवार के दिन कारागार के दरवाजे पर तुम्हें कुछ पैसे पड़े हुए मिलेंगे। उन पैसों से भगवान् बृहस्पतिदेव का व्रत करके उनकी पूजा करोगे तो तुम्हारे सब दुःख नष्ट हो जाएंगे।

बृहस्पतिवार के दिन दरवाजे पर पड़े मिले पैसों से चने और गुड़ मंगाकर लकड़हारे ने बृहस्पतिवार की कथा कही तो भगवान् बृहस्पतिदेव ने प्रसन्न होकर उस नगर के राजा को स्वप्न में लकड़हारे को कारागार से मुक्त करने को कहा।

सुबह राजा ने अपने कक्ष में आकर देखा तो खूँटी पर रानी का हार टंगा हुआ था। राजा ने लकड़हारे को मुक्त कर दिया और उसे धन और आभूषण देकर विदा किया।

लकड़हारा बना राजा उस नगर से चलकर अपने नगर में पहुँचा तो उस नगर में कुएँ, धर्मशाला, बाग-बगीचे देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। राजा ने किसी से पूछा, “ये कुएँ धर्मशालाएँ किसने बनवाई हैं? ” सबने उसे बताया कि ये सब रानी और उसकी दासी ने बनवाए हैं।

राजा महल में पहुँचा तो रानी ने उसका भव्य स्वागत किया। तब राजा ने निश्चय किया कि सप्ताह में एक बार तो सभी बृहस्वतिदेव का व्रत तथा पूजन करते हैं, परन्तु मैं प्रतिदिन व्रत किया करूँगा तथा दिन में तीन बार कथा कहा करूँगा।

अब राजा हर समय दुपट्टा में चने की दाल बाँधे रहता तथा दिन में तीन बार बृहस्पतिदेव की कथा कहता। कुछ दिनों के बाद राजा को अपनी बहन की याद आई। एक दिन घोड़े पर सवार होकर राजा अपनी बहन से मिलने चल दिया।

अभी राजा नगर के बाहर पहुँचा ही था कि उसने कुछ लोगों को एक शव को ले जाते हुए देखा। राजा को स्मरण हो आया कि आज उसने किसी को बृहस्पतिवार की व्रत कथा नहीं सुनाई है।

राजा ने उन लोगों को रोककर कहा, “भाइयो! आप शव को ले जाने से पहले मुझसे बृहस्पतिवार की कथा सुन लें।” लोगों ने राजा पर क्रोधित होते हुए कहा, “तुम पागल तो नहीं हो।” लेकिन कुछ बड़े-बूढ़े लोगों ने कहा, “अच्छा भाई, साथ में चलते-चलते तुम अपनी कथा भी सुना लो।”

राजा ने चलते हुए आधी कथा ही सुनाई थी कि शव हिलने लगा। राजा के पूरी कथा सुनाते ही शव उठकर बैठ गया। लोगों ने हैरानी से दाँतो तले उँगली दबाई और अगले बृहस्पतिवार से भगवान् बृहस्पतिदेव का व्रत करने व कथा सुनने का निश्चय कर लिया।

अब घोड़े पर सवार राजा चलते हुए एक किसान के पास पहुँचा। किसान अपने खेत में हल चला रहा था, राजा ने कहा, “अरे भाई! मुझसे बृहस्पतिवार की कथा सुन लो।” किसान झुंझलाकर बोला, “अरे भाई! देख नहीं रहे। जितनी देर तक तुम्हारी कथा सुनूँगा, उतनी देर में तो पूरे खेत में हल चला लूँगा।” राजा निराश होकर चलने लगा।

तभी किसान के बैल लड़खड़ाकर जमीन पर जा गिरे। किसान के पेट में भी जोरों का दर्द होने लगा। उस किसान की पत्नी जब खाना लेकर आई तो उसने किसान से इस बारे में पूछा। किसान ने घुड़सवार की पूरी कहानी सुनाई।

किसान की पत्नी दौड़ती हुई राजा के पास पहुँचकर हाथ जोड़कर बोली, “भैया! मैं तुम्हारी कथा सुनने को तैयार हूँ।” राजा ने उसके साथ खेत पर पहुँचकर बृहस्पतिवार की कथा सुनाई। तभी बैल उठकर खड़े हो गए। किसान के पेट का दर्द भी तुरन्त ठीक हो गया।

राजा अपनी बहन के घर पहुँचा तो उसकी बहुत आव-भगत हुई। अगले दिन सुबह उठकर राजा ने देखा, घर के सभी लोग भोजन कर रहे हैं। किसी भूखे को बृहस्पतिवार की कथा सुनाए बिना राजा भोजन नहीं करता था। उसने बहन से कहा, “बहन! क्या घर में कोई ऐसा व्यक्ति है, जिसने अभी तक भोजन न किया हो।”

उसकी बहन बोली, “भैया! हमारे घर में तो क्या आपको पूरे नगर में कोई ऐसा व्यक्ति नही मिलेगा जिसने सुबह-सुबह भोजन नहीं किया हो।” तब राजा ने बहन के घर से निकलकर उस नगर में बिना भोजन किए व्यक्ति की तलाश की।

एक गड़रिए के घर में उसका बेटा बीमार होने के कारण भूखा रह गया था। राजा ने उसको जाकर बृहस्पतिवार की कथा सुनाई। कथा सुनते-सुनते गड़रिए का बीमार बेटा बिल्कुल ठीक हो गया। सबने राजा की बहुत प्रशंसा की।

एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, “बहन! अब हम अपने घर जाना चाहते हैं। तुम भी हमारे साथ चलो। कुछ दिन वहाँ रहकर लौट आना।” राजा की बहन ने अपनी सास से पूछा, तो सास ने ताने देते हुए कहा, “बहु। मायके जाना हो तो अकेली जाना! मेरे पोतों को नहीं ले जाना। तुम्हारे भाई के कोई सन्तान नहीं है। कहीं तुम्हारी भाभी मेरे पोतों पर कोई जादू-टोना न कर दे।”

दूसरे कक्ष में बहन की सास की बातें सुनकर राजा दुखी मन से अकेला ही अपने नगर को लौट गया। रानी ने राजा से कहा, “आप तो अपनी बहन को साथ लाने की बात कहकर गए थे फिर बहन को साथ क्यों नहीं लाए?”

तब राजा ने दुखी होते हुए कहा,“ रानी! हम निसंतान हैं, इसलिए कोई हमारे घर आना पसंद नहीं करता।” रानी ने राजा को समझाया, “हे प्राणनाथ! हमें बृहस्पतिदेव ने सब कुछ दिया है। अब भगवान् बृहस्पतिदेव हमें सन्तान भी अवश्य देंगे।”

बृहस्पतिवार को विधिवत् व्रत करते हुए राजा-रानी ने भगवान् बृहस्पतिदेव से सन्तान के लिए प्रार्थना की। कुछ दिनों के बाद उन्होंने स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा, “हे राजन! तेरी मनोकामना अवश्य पूरी होगी।”

एक सप्ताह बाद ही रानी गर्भवती हो गई। दसवें महीने रानी ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। राजा-रानी जीवनपर्यन्त बृहस्पतिवार का व्रत करते रहे। उनके घर में धन की वर्षा होती रही।

इस तरह आनंदपूर्वक जीवन यापन करते हुए राजा-रानी भगवान बृहस्पतिदेव की अनुकम्पा से मोक्ष को प्राप्त करके सीधे बैकुण्ठ धाम पहुँच गए। बृहस्पतिवार
को विधिवत् व्रत करके जो स्त्री-पुरुष भगवान् विष्णु की पूजा करते भगवान् उनकी सभी मनोकामनाएँ पूरी करते हैं।

बृहस्पतिवार व्रत कथा करने के बाद आरती करने का बहुत महत्त्व है. आरती पढ़ने के लिए नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करें.

बृहस्पतिवार की व्रत कथा आरती (संपूर्ण आरती)